Saturday, July 5, 2014

Qaul-e ahem





هم تو قایل تهی محبت کی تحت قوله  اهم    
هم سی دستور زمانی کا  نیبهایا ن گیا 
فربو جال که تکناکیان فراهم تهن 
ایسا گستاخ چالان هم سی دیخایا ن گیا .

हम तो क़ायल थे मोहब्बत के तहत क़ौले अहम 
हम से दस्तूर ज़माने का निभाया न गया 
फरेबों जाल की तकनीकियां फराहम थीं 
ऐसा ग़ुस्ताख़ चलन हम से दिखाया न गया। 

لوگ ایسه حین ک پابنده وفا حین هی نهن 
ونکا ایمان های قرض ونکا مذهب های قرض
وه حین وه شی کی انهن اور نهان بهتا کوچه 
انکه هر بات قرض ونکا عنوان قرض . 

लोग ऐसे हैं कि पाबंदे वफ़ा हैं ही नहीं 
उनका ईमां है ग़रज़ उनका मज़हब है ग़रज़ 
वोह हैं वह शै कि जिन्हें और न कुछ रास आये  
उनका मक़सद है ग़रज़ उनका उन्वान ग़रज़। 

میلی نجات جهان یس شبه قرض سه کهن 
ای و مره ازاز چلو اور کهن چلتی حین 
جهان ایمانو ودهرم اور وفا کا هو پرچم 
ایسه وعده مین بهت  دور کهن چلتی حین .

मिले नजात जहां इस शबे ग़रज़ से कहीं 
ऐ वो मेरे अज़ीज़ चलो और कहीं चलते हैं 
जहाँ ईमानो धरम और वफ़ा का हो परचम 
ऐसी वादी में बहुत दूर कहीं चलते हैं। 

7 comments:

Unknown said...

बहुत खूब

लकिन ऐसा स्थान मिलेगा कहाँ ।तमन्ना अधूरी ही रह जाएगी।

neelkanth said...

One has to continue his endeavours after all.

Myso said...

MOST BEAUTIFUL LINES, SIR

Unknown said...

Wonderful,lovely poem.

But it is difficult rather impossible to find out such place on the earth.

Unknown said...

मैने कबिता पढी खुशी यूं मिली कि जैसे भूले भटके राही को मंजिल मिल जाएा
बहुत दिनों से रोते और कलपते शिशु को उसकी खोई मां मिल जाएा
मन की अमराई में कोयल कूक रही हो ज्‍यों प्रभात में
किसी रंक के हाथों को ज्‍यों पारस का पत्‍थर मिल जाएाा

neelkanth said...

अति सुन्दर पंक्तियाँ हैं। मैं भाव विभोर अनुभव कर रहा हूँ। सस्नेह धन्यवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ।

Rahul Nigam said...

वफ़ाओ की तलाश में जिन्दग़ी अज़ाब हो गई,
सुराब सी रस्में वफ़ा हमें कहां से कहां ले आई.