बन्द मुट्ठी के तंगहाल मुनाफ़े की तरह मगर क़ुबूल नहीं आज भी शिकश्त मुझे कश्मकश जारी रहेगी हत्तुल इम्काँन होश क़ाबू में हैं जिस हाल में जिस लम्हा तक मैं रचाता रहुँगा कोइ न कोइ उन्वान फिर तो क़ुदरत का करिष्मा मुझे संभालेगा वास्ता कायनात का है इत्ना फिर तो ज़ेबायेशे दरिया क़ी लहर ओढ़ेगी ज़माँ दराज़ का भारी सपना
Tuesday, September 10, 2013
प्रियवर Tandonji, आपका लेख प्राप्त हुवा , अति सुन्दर एवम प्रशंशनीय है। वर्डप्रेस पर हिन्दी संभव नहीं है अतः मैं अपने दूसरे ब्लॉग का प्रयोग करते हुए आप से उन्मुख हूँ। पुनह प्रयास कर के देखता हूँ और यदि संभव हो पाया तो आप का लेख वोर्द्प्रेस पर उल्लिखित करूंगा। लेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद प्रस्तुत करता हूँ। यह पोस्ट मैं आप को ईमेल कर रहा हूँ। पुनः सादर धन्यवाद। कृपया इस की प्राप्ति की सूचना ईमेल द्वारा करें।
प्रिय जगदीश, तुम्हारी दोनों कृतियों 'छ्न्दोद्यान्न ' एवं ' अधरों का संवाद ' का अवलोकन किया , बहुत ही रोचक लगीं . एक रचनाकार के रूप में तुम अपने आप को सुदृढ़ रूप में स्थापित करनें में सफल रहे इस बात की हार्दिक प्रशन्नता है और इस बात की कामना है कि तुम इस दिशा में उत्तरोत्तर प्रगति के और भी श्रेष्ठ एवं नवीन कीर्तिमान प्रतिस्थापित कर सको . मुझे सदैव एक जिग्ग्यासु के रूप में इसकी प्रतीक्छा रहेगी . स्नेह एवं अनेकानेक मंगल कामनाओं के साथ , यम ० आर ० अवस्थी
Saturday, April 27, 2013
गुनाह एक नहीं और चार कर लूँगा हज़ार बार हजारों ज़वाल सह लूँगा पोंछ पावूँ जो किसी ग़मज़दा के आंसूं मैं